पुस्तक ‘टिहरी की जनक्रांति ‘ का लोकार्पण
देहरादून। दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के सहयोग से डॉ. गिरधर पण्डित द्वारा लिखित पुस्तक ‘टिहरी की जनक्रांति ‘ का लोकार्पण इतिहासकार और लेखक पद्रश्री प्रो. शेखर पाठक ने किया ।
इस अवसर पर हे. न. बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. अतुल सकलानी विशेष रूप से उपस्थित थे। इस कार्यक्रम का संचालन लेखक डॉ. योगेश धस्माना ने किया। इस पुस्तक में गढ़राजवंश के शासकों के 888ई. काल से लेकर 1950 तक टिहरी रियासत की निरकुंश शाही और जन प्रतिरोध की कहानी को पहली बार तथ्यों के साथ विश्लेषित करने का यथार्थ प्रयास किया गया है। पुस्तक के लेखक, प्रो. पण्डित ने 1980 के दशक में इस विषय को कुमाँऊ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा के रानीखेत डिग्री कालेज के डा. जाकिर हुसैन के निर्देशन में शोध प्रबन्ध के रूप में प्रस्तुत किया था। वर्तमान में समय साक्ष्य प्रकाशन से यह पुस्तक आयी है।यह पुस्तक टिहरी रियासत के भीतर जन सघर्षो विशेष कर राजशाही के चरित्र, किसान आन्दोलनों की सतत श्रृंखला की कहानी के साथ ही नागेन्द्र सकलानी और मोलू सरदार के जीवन संघर्ष और उनकी शहादत को एक नए दृष्टिकोण के साथ इतिहास के दुर्लभ प्रंसगों को शोधार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करती है। लेखक का मानना है कि भारत की देशी रियासतों में टिहरी रियासत अकेला ऐसा राज्य था, जिसके जन संघर्ष की गाथा में स्थानीय नेतृत्व ने सामाजिक आर्थिक पिछडेपन के विरूद्ध जन असन्तोष को ऊर्जा और त्वरा प्रदान की। टिहरी रियासत के जन संघर्ष के इतिहास की यह एक विशेषता रही हैं कि उसके किसी बाहरी प्रभावशाली नेतृत्व के थोपे जाने और एजेण्डा निर्धारित न करके स्वंय जनता ने जन समस्याओं के हाल के लिए स्वंय मार्ग प्रशस्त किया। यह भारत की ऐसी एकमात्र देशी रियासत थी जिसने बाहरी भौतिक संसाधनो का लाभ लिए बिना गुणात्मक और विकेन्दीकृत व्यवस्था के तहत आन्दोलन का संचालन किया। पुस्तक में डांगी चौरा आन्दोलन, रंवाई घाटी का आन्दोलन जैसे कृषक आन्दोलनों का राष्ट्रीय स्तर पर विश्लेषित कर जन सामान्य के इतिहास को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रखने का प्रयास किया है। लेखक गिरधर पण्डित ने पुस्तक के माध्यम से, टिहरी प्रजा के आचरण मनोवृत्ति का वैज्ञानिक और नवीनतम शोध प्रविधियों के माध्यम से मूल्यांकन करने का प्रयास किया है।इस अवसर पर प्रो. शेखर पाठक ने हिमालयी देशी रियासतों के इतिहास और जन संघर्षो को स्वतः स्फूर्त आन्दोलन की संज्ञा देते हुए नागेन्द्र सकलानी, श्री देव सुमन और कोलू भरता के साथ ही लाला दौलतराम के योगदान पर विस्तार से प्रकाश डाला ।